अखिलेश के कदम से उड़ सकती है मायावती की नींद...

चुनाव की बात हो तो देश के ज्यादातर हिस्सों में जातिगत समीकरणों का जिक्र होना लाजिमी है। उत्तरप्रदेश भी इससे अछूता नहीं है। दोबारा सत्ता में आने के लिए प्रयास कर रही समाजवादी पार्टी (सपा) ने वहां जातिगत आधार पर ही एक बड़ा कार्ड चला है। सपा इससे पहले तक लालू प्रसाद यादव की तर्ज पर मुस्लिम-यादव (एम-वाई) फॉर्मूले पर चलती रही है। अब जब उसे प्रतीत होने लगा है कि यादव वोट तो पूरी तरह उसका हो ही चुका है, तो उसने इस फॉर्मूले में तब्दीली करते हुए अब दलित-मुस्लिम पर दांव लगाया है।सपा खासतौर से पश्चिमी उत्तरप्रदेश में यह प्रयोग कर रही है। इसका अंदाज उसकी शुक्रवार को जारी पहली सूची से लगाया जा सकता है, जिसमें दलित तथा मुस्लिमों को खासी संख्या में टिकट दिए गए हैं। खास बात यह कि सत्तारूढ़ दल उस हिस्से में यह प्रयोग कर रहा है, जहां जाट-मुस्लिम समीकरण पूरी तरह हावी है, लेकिन सपा को यकीन है कि पश्चिमी हिस्से के मुजफ्फरनगर में हुए भीषण दंगे के चलते यहां के दलित सहित मुस्लिम मतों पर फोकस किया जाना ज्यादा जरूरी है। ऐसे में अखिलेश यादव के नए प्रयोग ने राज्य में मुख्य विपक्षी दल बहुजन समाज पार्टी सहित अन्य दलों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है।
खासतौर से पश्चिमी यूपी को ध्यान में रखते हुए सपा 209 उम्मीदवारों की सूची जारी कर चुकी है, लेकिन सूची खासी चौंकाने वाली है। क्षेत्र के हिसाब से सपा ने दलित-मुस्लिमों पर दांव खेला है। सूची में 56 मुस्लिम तो 39 दलितों को टिकट दी गई है। सपा की सूची पर सियासी जानकार बताते हैं कि क्षेत्र के हिसाब से होना तो ये चाहिए था कि मुस्लिमों संग जाट समीकरण पर रणनीति तय की जाती, लेकिन सपा की इस चाल ने दूसरे दलों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। राजनीति विश्लेषक बताते हैं कि 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से जाट और मुस्लिम गठजोड़ पर कोई भी रणनीति तैयार करना खुदकुशी करने जैसा हो सकता है। और फिर दूसरी पार्टियों का पूरा ध्यान होगा कि किसी भी तरह से जाट-मुस्लिम गठजोड़ को न बनने दिया जाए। इसी को ध्यान में रखकर सपा ने जोखिम लेते हुए ये कदम उठाया है।इस क्षेत्र में एमवाई फैक्टर पर काम न करने का सपा का दूसरा कारण ये भी है कि यादवों की संख्या दलित-मुस्लिमों के मुकाबले यहां बहुत कम है। यहां सन 2013 के मुजफ्फरगन दंगे बाद से अभी तक जाट-मुस्लिम के बीच की खाइयां पटी नहीं हैं। खासतौर से सपा के लिए दोनों ही समुदाय को साथ लेकर चलना उसके मुस्लिम वोटर को नाराज भी कर सकता था। सपा के इस प्रयोग से सबसे ज्यादा धक्का बसपा को लगा है, क्योंकि जिस कार्ड को सपा पहली बार खेल रही है उस कार्ड पर बसपा हमेशा से चुनाव लड़ती आई है। इसलिए ये और भी बसपा के लिए खतरे की घंटी हो जाती है।

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